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मैं भी सोचूँ तू भी सोच

हुल्लड़ मुरादाबादी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3042
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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हास्य-व्यंग्य से पूर्ण हुल्लड़ मुरादाबादी की रचनायें...

Main bhi sochu tu bhi soch

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक मित्र ने पूछा ‘‘हुल्लड़ जी फ्रीडम फाइटर्स को तो अपने देश से बहुत प्यार है उनके बारे में आपका क्या विचार है’’ मैंने कहा ज्यादातर सियासत की बाढ़ में बह गये हैं फ्रीडम फाइटर्स में से फ्रीडम शब्द तो गायब हो गया है अब तो सिर्फ कुर्सी के लिए लड़ने के लिए फाइटर्स रह गये हैं।

मान जा तदबीर पर मत नाज़ कर
शक किया वो भी खुदा पर, डूब मर
नैमते देगा मगर ये शर्त है
तू उसी के नाम से आगाज़ कर

 

सोचने की मजबूरी में कविताएं


 
‘मैं भी सोचू, तू भी सोच’ के कवि हुल्लड़ मुरादाबादी मुझे पिछली शताब्दी के लगभग छठे दशक में डॉ. रमेश दत्त शर्मा के राणा प्रताप बाग स्थित मकान में मिले थे। तब वे सुशीला कुमार चड्ढ़ा थे और हास्य-व्यंग्य की एक पत्रिका, सम्भवताः ‘परिहास’ के प्रकाशन की योजना बना रहे थे; फिर अचानक मैंने उन्हें हुल्लड़ मुरादाबादी के नाम से जाना। वे हास्य कविताएँ लिखने की ओर प्रवृत्त हो गए और उस समय के अनेक हास्य कवियों के समान हास्य कवि सम्मेलन के एक अनिवार्य अंग बन गए। हालाँकि कवि सम्मेलनों के बारे में अनेक बुद्धिजीवियों की राय परस्पर विरोधी है और अनेक इन्हें कविता से शून्य भी मामने लगे हैं, फिर भी वे हो रहे हैं, बड़ी मात्रा में हो रहे हैं और हुए चले जा रहे हैं। यह बात याद रखने लायक जरूर है कि मात्र निराला, बच्चन, भगवती बाबू जैसे कवियों ने ही कवि सम्मेलनों को नहीं अपनाया अपितु नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र एवं गिरिजा कुमार माथुर जैसे प्रगति-प्रयोगशील कवियों ने भी कवि सम्मेलनों की उपेक्षा नहीं की।

एक बात ! मंच के कवियों के बारे में एक धारणा यह भी प्रचलित है कि वे अपनी गिनी-चुनी रचनाओं के बल पर बने रहते हैं, उनके संकलन नहीं छपते। हास्य कवियों पर लतीफेबाज होने का इल्जाम लगता है, यह भी देखा गया। मगर यहाँ भी अनेक अपवाद हैं। श्री गोपालप्रसाद व्यास, अशोक चक्रधर आदि के अलावा हुल्लड़ मुरादाबादी भी इन अपवादियों में शामिल हैं। उनके अब तक सात कविता संकलन छप चुके हैं। ‘मैं सोचूँ, तू भी सोच’ हुल्लड़ मुरादाबादी का आठवाँ काव्य संकलन हैं। इससे यह तथ्य तो निश्चित रूप प्रमाणित होता है कि वे मात्र मंच के नहीं, अध्ययन कक्षों के कवि भी हैं।’
 कभी ‘सब्र’ उपनाम से शायरी करने वाले हुल्लड़ मुरादाबादी ने लगता है कि विसंगतियों को अपनी नियति मानकर सब्र कर लिया हैं। यही कारण है कि उन्होंने समाज, व्यक्ति, नीति और राजनीति के साथ-साथ धर्म-सम्प्रदायों की विसंगतियों को समझकर उन पर व्यंग्य-कटाक्ष किया है। वे आत्म-व्यंग्य करने से किंचित नहीं चूकते प्रमाण स्वरूप इस संकलन में उनकी अनेक पंक्तियाँ आसानी से मिल जाएंगी।

हुल्लड़ मुरादाबादी की बेबाक टिप्पडियों एवं व्यंग्य-आक्रमण का एक प्रसंग प्रायः याद आता है। गणतन्त्र दिवस के रोज नोएड़ा में आयोजित एक कवि सम्मेलन में उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर सुनाया थाः

श्रीराम अयोध्या से इंग्लैण्ड जाओ
सौ साल लगेंगे अब मन्दिर को बनाने में

सुनते ही मन्दिर वासियों में बौखलाहट मच गई थी। कहना होगा हुल्लड़ ने हंगामा मचा दिया था। तब सभी प्रबुद्धजनों ने महसूस किया था कि हुल्लड़ के पास कविता के मूल्य भी हैं और मूल्यवान व्यंग्य एवं कविता भी हैं। उनके पास कविता की सोच है सम्भवताः इसी सोच की मजबूरी में इन कविताओं का जन्म भी हुआ है।

प्रस्तुत संकलन में छान्दिक कविताएँ यथा गीत, गजलें, दोहे और मुक्तक सभी मौजूद हैं। इनमें मुक्त छन्द की रचनाएँ भी हैं और बहुत से लतीफों को भी उन्होंने कविताई के रूप में पेश किया है। इन रचनाओं से साफ उभरता है कि कविताओं के हास्य की राख के नीचे व्यंग्य की चिंगारियाँ काफी मात्रा में मौजूद हैं जो उनकी बेबाक संवेदनशीलता का परिचय देती हैं। साथ ही इस तथ्य और जरूरत की चेतावनी भी देती हैं कि हुल्लड़ को अपनी सम्प्रेषणीय के कौशल का प्रयोग करते हुए व्यंग्य धारदार इस्तेमाल करना है, उसे उपेक्षणीय नहीं बनाना है।

कहना होगा कि ‘मैं भी सोचूँ, तू भी सोच’ की रचनाएं समाज और व्यक्ति नीति और राजनीति, अर्थशास्त्र और व्यर्थतन्त्र के अनेक पहलुओं पर चुटकी लेती हैं और सोच-विचार के लिए प्रेरित करती हैं। सोचने को मजबूर करने वाली कविता उत्प्रेरक होती है। चेतना में हलचल मचाती हैं, यह विश्लेषण एवं आत्मविश्लेषण भी करती है। हुल्लड़ मुरादाबादी के पास आसान जुबान में गहरी विसंगतियों का उत्खनन कर डालने का कौशल है। वह कौशल के सुगढ़ प्रयोग कविता की खोई हुई साख को पुनः प्रतिष्ठित कर सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।

जी-34, प्रथम तल
साकेत, नई दिल्ली-110017

शेरजंग गर्ग

आम आदमी रोएगा


 कोई जीते कोई हारे आम आदमी रोएगा
पहले भी भूखा सोता था, अब भी भूखा सोएगा

आम आदमी ने करगिल में अपनी जान गँवाई है
क्या तुमने किसी नेता की अर्थी किसी युद्ध में पाई है
जिसको कोठी कार चाहिए वह क्या देश सँजोएगा
कोई जीते कोई हारे आम आदमी रोएगा

वो ही भ्रष्टाचार्य मिलेगा, वही ग़रीबी बेकारी
हालत ज्यों की त्यों रहनी है, क्या लेंगे अटल बिहारी
एक बहू तो ला न पाया, बहुमत कैसे ढोएगा
कोई जीते कोई हारे, आम आदमी रोएगा

कुछ गाँवों में जाकर देखो बिजली है ना पानी है
है अन्धा कानून यहाँ पर और व्यवस्था कानी है
घायल सड़कों के घावों को कौन मिनिस्टर धोएगा
कोई जीते कोई हारे आम आदमी रोएगा
 
देख देखकर अपनी डिग्री नौजवान तो रोता है
प्रजातंत्र में अब शिक्षा का मतलब आँसू होता है
आत्महत्या करके आख़िर नींद मौत की सोएगा
कोई जीते कोई हारे आम आदमी रोएगा

इस कलयुग में सच्चाई का जो भी शख्स पुजारी है
मानवता आदर्श मानकर जिसने उम्र गुज़ारी है
भीख माँग कर ही खाएगा या फिर रिक्शा ढोएगा
कोई जीते कोई हारे आम आदमी रोएगा।

इसी तरह से अगर बढे़गी महँगायी और बेकारी
तन ढकने को कपड़ों तक की हो जाएगी लाचारी
मजबूरी में मुफ़लिस इक दिन पहन लंगोटी सोएगा
कोई जीते कोई हारे, आम आदमी रोएगा


रामफल


छिन गये मुँह के निवाले, रामफल
इस महीने घास खा ले रामफल

निर्जला एकादशी रख चार दिन
फिर इसे आदत बना ले रामफल
 
बिजलियाँ आती नहीं है गाँव में
रात भर उपले जला ले रामफल
 
आज भी लाया नहीं बेटा दवा
खाँसकर कुछ दिन बिता ले, रामफल

कल रहे तू ना रहे है क्या पता ?
आज ही बीमा करा ले रामफल

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